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आस्था - 23 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
मानवता में आस्था
सिर्फ कवि रूपी
कोरी कल्पना नहीं है
अपितु
यथार्थ है
हर एक प्राणी का
जो लेता है, श्वास।
फरक सिर्फ इतना है
समय आने पर
श्वास, प्राणी से
नाता तोड़ लेती है
परंतु
मानवता समा लेती है
उस मृत काया को
अपनी ही श्वासों में।
सारांश में, मानव
मानवता के लिये
आती-जाती
श्वास से ज्यादा
और कुछ भी नहीं है।