भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस्था - 33 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
इस दुनियाँ में जब रात और दिन
मानव की गर्दन पर अनिश्चितता की
तलवार
लटक रही हो
और चारों तरफ
हिंसा नाच रही हो
तो कैसे कोई
शांति की सोच सकता है।
शायद आने वाली पीढ़ियों के लिये
शांति एक अतीत का
सपना बनकर रह जाए
कभी उनके पूर्वज रहते थे।
इसलिये क्यों न
सपनों की दुनियाँ में
जिया जाए
जहाँ बच्चे
देख सकें, आशा की किरण।