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आस ने जब हर कदम दुत्कार पाई / अभिषेक औदिच्य
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और कब तक हाथ फैलाकर रखें हम?
आस ने जब हर कदम दुत्कार पाई।
हाथ खाली, पेट खाली देखकर,
पाँव, उल्टे पाँव वापस चल पड़े।
बुझ गया जब चंद्रमा आकाश में,
खुद नयन सूरज सरीखे जल पड़े।
कंठ भी झल्ला उठा तब 'लौट चल' ,
जब कुएँ पर प्यास ने फटकार पाई।
एक सब्जी, चार पूरी हाथ पर,
प्यार से पुचकार कर वे दे गए।
और फिर विनिमय हुआ कुछ इस तरह,
चार दानी, आठ फोटू ले गए।
आँत ने भी अन्न स्वीकारा नहीं,
याचना में भूख जब लाचार पाई।
हम न निकलेंगे घरों से जान लो,
प्यास को भी कंठ तक लाना मना है।
फेफड़े, गुर्दे, लिवर खाकर जिएंगे,
भूख से तो आज मर जाना मना है।
यदि हराना है हमें इतना सहज तो,
सच कहूँ यह ज़िन्दगी बेकार पाई।