आह! ये सौंदर्य के प्रतिमान / आदर्श सिंह 'निखिल'
आह! ये सौंदर्य के प्रतिमान जो तुम गढ़ रहे हो
क्या कहीं आधार है इसका बताओ चाँद बोला।
तुम सभी उपमान जिसके नाम अब तक कर चुके हो
बस मुझे उस देवि के दर्शन करा दो याचना है
कौन वो मनमीत जिसके प्रेम के व्याख्यान पढ़ते
भूल जाते सृष्टि तुम कवि कौन वो नवयौवना है
या कि कल्पित भाव भर श्रृंगार करते स्वप्न का तुम
नित्य प्रति उत्कर्ष के सोपान मधुरिम चढ़ रहे हो
आह! ये सौंदर्य के प्रतिमान जो तुम गढ़ रहे हो
क्या कहीं आधार है इसका बताओ चाँद बोला।
मैं सहज ही मुस्कराया और फिर उससे कहा ये
देखते हो तुम गुलाबों के खिले मधुबन सुहाने
इन सभी की वो समेकित ताजगी के बिम्ब सी है
रति स्वयं श्रृंगार करती ढूढ़ आ नूतन बहाने
वो मेरा मनमीत जिसकी अर्चना करती हवाएं
और जिसके रूप के अध्याय तुम भी पढ़ रहे हो
आह! ये सौंदर्य के प्रतिमान जो तुम गढ़ रहे हो
क्या कहीं आधार है इसका बताओ चाँद बोला।
इस नदी की धार सी उन्मुक्त वो पावन सरस जो
मेघ उसके केश गुहते इत्र का छिड़काव करते
सिंधु मन विस्तृत सुकोमल कत्थई आंखे मनोरम
प्रेम की प्रतिमूर्ति अगणित भाव अन्तस् में विचरते
हाँ वही है बस वही मनमीत मेरी किन्तु नाहक
कल्पना का मिथ्य ही आरोप मुझ पर मढ़ रहे हो
आह! ये सौंदर्य के प्रतिमान जो तुम गढ़ रहे हो
क्या कहीं आधार है इसका बताओ चाँद बोला।