आह गुडिया / प्रभात कुमार सिन्हा
मौनसून प्रवेश करेगा आजकल में
इसका प्रवेश तीरो दा और त्रिभुवन के हाड़ में
बजना शुरू हो गया है
बस बाईस परिवार का टोला है गुडिया
दो पहाड़ी नदियाँ यहाँ सखियों की तरह
गलबहियाँ डालकर मिलने पर उतारू हैं
मेरे गाँव का छोटा-सा द्वीप है गुडिया
कभी यह छ: हाथ ऊँचा था नदी सतह से
अब रेत चढ़ आया है
सिंचाई का वीयर बांध बना है दो सौ कदम आगे
वहाँ से गुडिया के सीमाना तक बालू बुर्द हो चुका है
मौनसून के प्रवेश के बाद से आश्विन तक
रह-रह कर इन पहाड़ी नदियों का उद्दाम-प्रवाह
इस द्वीप के घरों के सहन तक आने लगा है
मिट्टी की दीवारें ढहने लगती हैं
यह उलाई वीयर सिंचाई बांध
बाईस घरों के लिये यमराज बन सकता है
कभी भी उनके घरों के सांकल
खटखटा सकता है जल-प्रवाह
बड़े रकबा को सिंचित करने वाली यह परियोजना
गुडिया के लिये काल बनने पर उतारू है
आसन्न ध्वंस का वेग
सामूहिक मृत्यु की संभावना को तीव्र कर रहा है
वहाँ के जीवन-चक्र के घूम जाने पर
कुछ ही घंटों-पलों के अन्दर सबकी सांसें सिमट जायेगी
कुछ पलों की चीख-चिल्लाहट के बाद
घने अंधकार का सन्नाटा पसर जायगा
स्मृति-शेष के रूप में
बचा रह जायगा बालू-बुर्द धरती के टुकड़े का अवशेष
रुदन के लिये कोई परिजन भी नहीं बच पायंगे
फिर तो तीरो दा और त्रिभुवन के माथे पर उगने वाली
चिन्ता की रेखाएँ कभी नहीं देख पायंगे
ओह गुडिया!
आह गुडिया!