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आ आ पुकारती है तुझे रुत बहार की / शोभा कुक्कल
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आ आ पुकारती है तुझे रुत बहार की
अब फ़स्ल पक चुकी है तेरे इंतज़ार की
करनी नहीं है बात हमें कोई ख़ार की
आलो की मिल के बातें करे हम बहार की
खुल जाएंगे वो आप से बस एक पल के बीच
बच्चों से बात कीजिये कोई दुलार की
मैं और उसकी याद को दिल से भुला सकूँ
ये बात तो नहीं है मेरे इख़्तियार की
खंज़र की धार पर भी चलेंगे जो चल सके
बाज़ी जो जितनी है हमें अपने प्यार की
कर देंगे गुल हवाएं चरागे-मज़ार को
चादर भी ले उड़ेंगी हमारे मज़ार की
वो सामने ही और लबों पर अड़ी हो सांस
ये आरज़ू है अपने दिले बेक़रार की
ऐ देश की हवाओं शहीदें वतन हैं हम
बुझने न पाए शमअ हमारे मज़ार की।
दरिया सुखों की फिर भी मुझे मिल नहीं सका
'शोभा' ग़मों की एक नदी मैंने पार की।