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आ गया बेकार चल कर / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
आ गया बेकार चल कर,
दूर घर से यूँ निकल कर !
जिस तरह थी, जैसी भी थी
थी बहुत दुनिया सुहानी,
जिन्दगी लगती मुझे थी,
लोकगाथा की कहानी;
मेरी खुशियां रानियां थीं;
दुख सुहाता भूप-सा था ।
रात मेरी थी कुमुदनी
दिन कमल का रूप-सा था।
जो महल हिम से बना था,
आज बहता है पिघल कर।
कुछ सुना था, कुछ इधर है
जो नहीं मिलता कहीं है,
आज जाना, जो इधर था
वह उधर कुछ भी नहीं है;
लाह का घर, लाह के नर,
दाह ऊपर सेज कोमल;
कौन-सा भय से सशंकित
ये विटप हैं श्वेत रोमल ?
यों पलासों के जले जी,
रह गये कचनार जल कर।