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आ गयी किस घाट पर यह नाव दिन ढलते हुए / गुलाब खंडेलवाल
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आ गयी किस घाट पर यह नाव दिन ढलते हुए!
धार के साथी सभी मुँह फेर कर चलते हुए
तेरी आँखों से तेरे दिल का था कितना फ़ासिला!
पर यहाँ एक उम्र पूरी हो गयी चलते हुए
हमने रख दी है छिपाकर इनमें दिल की आग भी
गुल नहीं होंगे कभी अब ये दिये जलते हुए
लाख दस्तक दें हवायें आके इस डाली पे आज
फूल जागेंगे नहीं आँखें मगर मलते हुए
तुझसे मिलने का किया वादा तो है उसने, गुलाब!
टल न जाए वह सदा को, दिन-ब-दिन टलते हुए