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आ जाओ, तुम्हारी ही राह देख रहा था / सुरेश सलिल

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आ जाओ, तुम्हारी ही राह देख रहा था
दरवाज़े पे जा गाह गाह देख रहा था

कुल आसमान काली घटाओं से है घिरा
मैं पार सियाही के माह<ref>चांद</ref> देख रहा था

अबरू के तेवरों से भला मुझको क्या गिला<ref>शिकायत</ref>
मैं तेरे चिराग़े निगाह देख रहा था

कुछ लोग तुम्हें ढूंढते हैं शाहराह पर
मैं तो हर एक ख़ानक़ाह देख रहा था

तू ख़ुद था उसी क़ौसेक़ुज़ह की तलाश में<ref>इंद्रधनुष की चाह में</ref>
तुझको उधर वो कमनिगाह देख रहा था

शब्दार्थ
<references/>