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आ जाना तुम / शिव मोहन सिंह
Kavita Kosh से
नयनों की रिमझिम से पहले,
सावन-घन बन आ जाना तुम ।
संतापों में बसता जीवन,
भ्रम जालों में मन का पाखी।
परकोटे का कागा भूखा,
अलसाई लगती बैसाखी।
अरमानों का कानन सूना,
हरियाली बन छा जाना तुम।
नैनों की रिमझिम से पहले
सावन-घन बन आ जाना तुम॥
आशा और निराशा में भी,
एकाकीपन खल जाता है।
सतरंगा रथ का आरोही,
ओझल होकर छल जाता है।
सूखी डालों में पुरवा के,
झूले डाल झुला जाना तुम ।
नयनों की रिमझिम से पहले,
सावन-घन बन आ जाना तुम॥
साँसों में सिमटी हैं अब भी,
अधरों की बाक़ी मुस्कानें ।
शांति तृप्ति की क्या होती है,
तुम ही जानो या हम जानें।
हम तो खोये हैं सपनों में,
एक हक़ीकत ले आना तुम ।
नयनों की रिमझिम से पहले,
सावन-घन बन आ जाना तुम॥