भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ बैठ बात करां - 5 / रामस्वरूप किसान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ बैठ/बात करां

घणैं दिनां सूं सोचूं
म्हारी आनन्दी !
कै सांच उगळूं

दुनियां नै बतावूं
कै म्हैं थारौ
सोसण करयो है

थां री ऊरजा सूं ई
सुरसत रौ
भंडार भरयौ है

थूं खपती रैयी
घर-धंधै
म्हैं चोरतो रैयौ
थारौ औसाण

रोपतो रैयौ
कविता रौ बिरूवौ
थारै औसाण री
जमीं पर

एक अचंभौ और
कै खाद ई थूं बणी
इण बिरूवै री
टेमोटेम

अर आज
लांठौ रूंख बणग्यौ
म्हारी कविता रौ बिरूवौ
थारै पाण

के जाणै बापड़ो
जग अणजाण
कै इण री जड़यां तळै
गूछळो मारयां
बैठी है थूं मून
जाबक मून !

अब कठै सोधूं थनै
म्हारी आनन्दी !
थूं तो माटी में रळगी

इण जग नै
कींकर दिखावूं थनै ?

कांईं सबूत द्यूं
कै ऐ कविता
म्हारी कोनी ?