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इंदर-धनुस / नीरज दइया

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इंदर-धनुस जोयां नै बरसां रा बरस बीतग्या । अकाळ अर बिखै री गंगरत टाळ म्हारा कवि, बाकी कीं दाय ई कोनी करै- कविता लिखण खातर । एम. एससी. पास म्हारो मास्टर भायलो कैवै- धूड़ है भणाई-लिखाई नै, आ कांईं काम ई कोनी आवै ।

इंदर-धनुस रै सात रंगां मांय किसो रंग कठै किसी कूंट भरीजैला- गैरो का फीको ? आ तो म्हैं जाणूं ई कोनी । फेर कविता मांय सजावट रै समचै बिना सोच्या-समझ्यां क्यूं आ बिसादी बात टोर दी ! जूण रा रंग भासा सूं होवै अर बा आपां पाखती कोनी,
सो रंग ई कोनी आपां रा कवियां पाखती । आपां बिखै अर काळ री मार माथै मार खावता कविता नै उणी मारग टोर दी- बस सतसई बणावण री हथोटी झाल लीवी । म्हैं म्हारै छोरै नै दे दीवी खुल्ली छूट- बणा थारी मरजी रा फोटूड़ा अर भर उणा मांय दाय आवै जिको रंग... थारी मरजी मुजब ।

इनदर-धनख पेटै छेहली बात, म्हारो छोरो कैवै- ओ म्हारो हाथी हरो है । म्हैं बरजू कोनी । काळो अर धोळो ई नीं लाल-हरो-नीलो अर पीळो भी हो सकै है हाथी, पण बो बेगो ई जाण लेवैला आप री भूल । म्हैं कैवूं म्हारै छोरै नै कै थूं भारत रो झंडो तिरंगो बणावणो सीख लै, अर जिकी भासा थारै रगत रळियोड़ी है उण मांय केसरिया रंग का काळो-धोळो-हरो रंग ना लमूटै । राखजै सावचेती !