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इंसानों में अब नहीं, दिखता है ईमान / उत्कर्ष अग्निहोत्री
Kavita Kosh से
इंसानों में अब नहीं, दिखता है ईमान,
बिकता है बाज़ार में, बनकर इक सामान।
मत इतरा ख़ुद पर यहाँ, बेहतर तुझसे लोग,
नहीं किसी को भीड़ में, मिल पायी पहचान।
सभी यहाँ कहने लगे, सही हुआ इंसाफ,
सच की गरदन कट गई, झूठ बना सुल्तान।
ना होने पर भी यहाँ, हो ऐसे मौजूद,
जैसे ख़ुशबू दे रहा, हो खाली गुलदान।
हर बन्धन से कर दिया, इक क्षण में आज़ाद,
जीवन पर है मृत्यु का, बहुत बड़ा एहसान।