इक्कीसवीं सदी के पांव / योगेन्द्र दत्त शर्मा
दूर तक रौंदी हुई है दूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
हो गईं चौड़ी बहुत पगडंडियां
जो राजपथ से जा मिलेंगी,
सड़क का आकार लेंगी,
गांव की संस्कृति सहेगी मौन
मौन टूटन
सभ्यता उसको दिखायेगी
अंगूठा
काली झंडियां,
कस्बे, नगर अब महानगरों से
स्वयं हो जायेंगे मंसूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब न माओं के लिए
वट-वृक्ष होंगे
अब न तुलसी पर चढ़ेगा जल,
न मंदिर पर कलश होगा,
कथा साईं नहीं अब बांच पायेगा,
नहीं अब हो सकेगा काम वह
जिससे शहर के लोग जायें ऊब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब न चौपालें रहेंगी,
गांव की पंचायतों में सिर्फ सन्नाटा बजेगा,
नीम-पीपल काटकर
उस जगह कहवाघर बनेगा,
एक टी-हाऊस होगा, क्लब बनेगा,
अब न नौटंकी रहेंगी, सिर्फ बाइस्कोप होगा,
रोशनी से गांव का हर घर सजेगा,
अब मनोरंजन रहेगा खूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब कभी होगी न आल्हा,
रागिनी पर अब न मटकेंगे यहां के लोग,
आर्केस्ट्रा-धुनों पर ट्विस्ट, रॉकेन-रॉल होंगे,
और हिप्पी-तर्ज पर चंडू-चरस का दौर
यूनीवर्सिटी के कैम्पसों से
गांव की चौहद्दियों पर दस्तकें देगा,
यहां के लोग जायेंगे नशे में डूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब न युवकों-युवतियों में फर्क होगा,
गांव का बेड़ा नहीं अब गर्क होगा,
उस पुरानी और बासी मान्यता के सिन्धु में,
अब गांव की अल्हढ़ किशोरी,
बैल-बॉटम, स्लैक्स, बिकनी, स्कर्ट पहने
फिरेंगी कालोनियों में
ढूंढने अपना नया महबूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
अब यहां के नवयुवक पोशाक पहनेंगे अजूबी-सी
जटा-से केश कंधों तक बढ़ाये,
मूंछ नीची, कलम लंबी, दाढ़ियां बुल्गानिनी
मुंह में चुरुट, पाइप दबाये,
क्रांति की बातें करेंगी
धंसी आंखें, गाल पिचके
ज्यों पुरानी साइकिल की ट्यूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
आदमी को आदमी से जोड़ता
हर पुल ढहेगा
ध्वस्त होगा हर महकता बौर
अब कंप्यूटरों का दौर
मानव-सभ्यता की प्रगति का माध्यम बनेगा
यंत्र के आगे विवश, असहाय-सा हर आदमी
बस भूख, बेकारी सहेगा
और फिर रासायनिक ब्रह्मास्त्र से
विध्वस्त-सा भूगोल होगा क्यूब,
इक्कीसवीं सदी के पांव आ पहुंचे!
-14 अगस्त, 1986