भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक ख़ुश्क समंदर है, मुझे ढूँढ रहा है / बिरजीस राशिद आरफ़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इक ख़ुश्क समन्दर है मुझे ढूँढ रहा है
वो मेरा मुक़द्दर है मुझे ढूँढ रहा है

गुज़रे थे जहाँ मेरी जवानी के कई साल
इस शह्र में इक दर है मुझे ढूँढ रहा है


इस तरह हवा मे‍ ये कभी ख़ुद नहीं उड़ता
फें‍का हुआ पत्थर है मुझे ढूँढ रहा है

कल तक जो सुनाता था मेरे हक़ में क़सीदे
अब हाथ में ख़ंजर है मुझे ढूँढ रहा है

उस दौर के आज़र ने तो पत्थर को तराशा
इस दौर का आज़र है <ref>मूर्तिकार</ref>मुझे ढूँढ रहा है

ये मेरी अना<ref>अहम</ref> थी जो किया, तर्के-तआल्लुक़<ref>संबंध-त्याग</ref>
वो अब भी मेरा घर है मुझे ढूँढ रहा है

महफ़िल में सुना दी थी ग़ज़ल मैंने यह ‘राशिद’
जो फ़न का सिकन्दर है मुझे ढूँढ रहा है
 

शब्दार्थ
<references/>