इक गीत लिखूँ / राकेश खंडेलवाल
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कोई गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ
भुजपाशों की सिहरन का हो जहाँ न कोई मानी
अधर थरथरा कर कहते हो पल पल नई कहानी
नये नये आयामों को छू लूँ मैं नूतन लिख कर
कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी
जो न अभी तक बजा, आज स्वर्णिम संगीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
प्रीत रूक्मिणी की लिख डालूँ जिसे भुलाया जग ने
लिखूँ सुदामा ने खाईं जो साथ कॄष्ण के कसमें
कालिन्दी तट कुन्ज लिखूँ, मैं लिखूँ पुन: वॄन्दावन
और आज मैं सोच रहा हूँ डूब सूर के रस में
बाल कॄष्ण के कर से बिखरा जो नवनीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
ओढ़ चाँदनी, पुरबा मन के आँगन में लहराये
फागुन खेतों में सावन की मल्हारों को गाये
लिखूँ नये अनुराग खनकती पनघट की गागर पर
लिखूँ कि चौपालों पर बाऊल, भोपा गीत सुनाये
चातक और पपीहे का बन कर मनमीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ