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इक नया ज़ख़्म रोज़ खाता हूँ / मनोहर विजय
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इक नया ज़ख़्म रोज़ खाता हूँ
हौसला अपना आज़माता हूँ
पेड़ देता है फल मुझे हर बार
‘शाख़ जब भी कोई हिलाता हूँ
झेलता हूँ मुसीबतें दिन भर
रात आते ही भूल जाता हूँ
जीत कर हर किसी से मैं अफ़सोस
ख़ुद से अकसर मैं हार जाता हूँ
अपनों के पास मिलता है सकून मुझे
चैन से अपने दिन बिताता हूँ
जान रख़ कर ‘विजय’ हथेली पर
मौत से मैं तो ख़ेल जाता हूँ