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इक रिवायत के सिवा कुछ न था तक़दीर के पास / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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इक रिवायत के सिवा कुछ न था तक़दीर के पास
क़िब्ला-रू हो गये हम यूँ बुत-ए-तदबीर के पास!

क्या हदीस-ए-ग़म-ए-दिल,कौन सा क़ुरान-ए-वफ़ा?
एक तावील नहीं साहेब-ए-तफ़सीर के पास!

दिल के आईने में क्या जाने नज़र क्या आया?
मुद्दतों बैठे रहे हम तिरी तस्वीर के पास!

अश्क-ए-नौमीदी-ओ-हसरत ही मुक़द्दर ठहर
एक तोहफ़ा था यही हर्फ़-ए-गुलूगीर के पास!

गोशा-ए-सब्र-ओ-सुकूं?हैफ़! न दीवार न दर!
थक के मैं बैठा रहा हसरत-ए-तामीर के पास!

हम हक़ी़कत के पुजारी थे, गुमां-गश्त न थे
और सिर्फ़ ख़्वाब थे उस ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर के पास!

क्या कहें गुज़री है क्या इश्क़ में अह्ल-ए-दिल पर
रह्न-ए-शमशीर कभी और कभी ज़ंजीर के पास!

तू ने ऐ जान-ए-ग़ज़ल! ये भी कभी सोचा है?
क़ाफ़िए क्यों न रहे "सरवर"-ए-दिलगीर के पास!