भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इक रूप नया आप में पाती हूँ सखी / जाँ निसार अख़्तर
Kavita Kosh से
इक रूप नया आप में पाती हूँ सखी
अपने को बदलती नज़र आती हूँ सखी
ख़ुद मुझको मेरे हाथ हसीं लगते हैं
बच्चे का जो पालना हिलाती हूँ सखी