इक समन्दर सा गिरा था मुझ में / नसीम अजमल
इक समन्दर सा गिरा था मुझ में ।
फिर बहोत शोर हुआ था मुझ में ।
रास्ते सारे ही मानूस से थे
इक फ़कत मैं ही नया था मुझ में ।
ख़ाक और ख़ून में नहलाया हुआ
कब से इक शख़्स पड़ा था मुझ में ।
बर्फ़ की तह में लरज़ती हुई लाश
ऐसा मंज़र भी छुपा था मुझ में ।
था कोई मुझमें जो था मुझसे हक़ीर<ref>तुच्छ</ref>
और कोई मुझसे बड़ा था मुझ में ।
उसने क्यों छोड़ दिया ख़ाना-ए-दिल<ref>दिल का घर</ref>
नक़्श-ए-हर-लम्स<ref>हर स्पर्श का चिन्ह</ref> हरा था मुझ में ।
मैं समझता था जिसे जान-ए-नफ़स
वो बहुत दूर खड़ा था मुझ में ।
मैं भी तस्वीर सा चस्पाँ था कहीं
सानेहा ये भी हुआ था मुझ में ।
रक़्स करते हुए तारों का हुजूम
ये ख़ज़ाना भी गड़ा था मुझ में ।
आसमाँ खौफ़ से तकता था मुझे
क्या कोई उससे बड़ा था मुझ में ।