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इच्छित / महेन्द्र भटनागर

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घूमा बहुत हूँ
घन अंधेरे में,
भटका बहुत हूँ
मन-अंधेरे में !

लिए
तम-राख लथपथ तन,
अविराम घूमा हूँ,
दिन - रात घूमा हूँ !

अब तो
रोशनी की धार में
जम कर नहाऊंगा,
सत्य के
आलोक-झरने में उतर
शेष जीवन-भर नहाऊंगा !

रोशनी में डूब कर
रोशनी में तैर कर
तन बहाऊंगा
मन बहाऊंगा
जी - भर नहाऊंगा !