इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे / 'वासिफ़' देहलवी
इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
जो ख़ाक हो के आप के दर पर पड़े रहे
ऐ दोस्त मुग़्तनिम हैं वो मुरादान-ए-बा-वक़ार
उसरत में भी जो आन पे अपनी अड़े रहे
पायाब हो के सैल ने उन के क़दम लिए
मंजधार में जो पाँव जमाए खड़े रहे
पड़ी नहीं हर एक पे उस की निगाह-ए-नाज
साक़ी के आस्ताँ पे हज़ारों पड़े रहे
अपनों की तल्ख़-गोई की लज़्ज़त न पूछिए
भाले से उम्र भर रग-ए-जाँ में गड़े रहे
मानिंद-ए-संग-ए-मील दिखाई हर इक को राह
लेकिन ख़ुद अपने पाँव ज़मीं में गड़े रहे
ज़ालिम से एक बोसे पे बरसों रही है ज़िद
आख़िर तक अपनी बात पे हम भी अड़े रहे
शायद कि मुल्तफ़ित हो कोई शहसवार-ए-नाज़
किस आरजू से हम सर-ए-मंज़िल खड़े रहे
फ़ितने बहुत हैं बुत-कदा ओ ख़ानक़ाह में
अच्छे रहे जो दश्त-ए-जुनूँ में पड़े रहे
‘वासिफ़’ का इंतिज़ार था सहरा में बाद-ए-क़ैस
काँटे भी मुद्दतों यूँ ही प्यासे पड़े रहे