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इतना हसीं कहाँ मेरा पहले नसीब था / डी .एम. मिश्र

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इतना हसीं कहां मेरा पहले नसीब था
तुमसे मिला नहीं था तो कितना ग़रीब था

मेरा ही था सदा वो जो मेरा नहीं हुआ
कोई नहीं वो और था , मेरा हबीब था

देखा नहीं नज़र भी उठा के कभी उसे
फिर भी वो जल रहा था वो मेरा रक़ीब था

बस इतना ही कहना है ज़माने से दोस्तो
घर जल रहा मिरा था, समंदर क़रीब था

घर पर फ़क़ीर देख के भी कुछ नहीं दिया
पैसा भी रख के शख़्स वो कितना ग़रीब था

ये धूप -छांव और हवा ताज़गी लिए
जो गांव छोड़कर गया वो बदनसीब था