भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इतनी कुण्ठा और निराशा ठीक नहीं / गिरीश पंकज
Kavita Kosh से
इतनी कुण्ठा और निराशा ठीक नहीं
सबको गाली देती भाषा ठीक नहीं
आप बड़े ज्ञानी-ध्यानी है मान लिया
लेकिन सब हैं एक बताशा ठीक नहीं
परिवर्तन लाने वाले होते है थोड़े-से
हर व्यक्ति से ऐसी आशा ठीक नहीं
हमसे ही बदलेगी ये दुनिया इक दिन
काम करो कुछ हर पल झाँसा ठीक नहीं
सब हँसते हैं तुम पे कुछ सोचा भी है?
हर पल तेरा नया तमाशा ठीक नहीं