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इतनी फ़िक्र अब कौन करता है / महेश कुमार केशरी

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अब लोग इतना ही पूछते हैं
जब भी मिलतें हैं कैसे हो ?
और मेरे मुँह से सिर्फ़ इतना
ही जैसे सुनना चाहते हों
ठीक
जैसे उनके पास बस इतना
ही पूछने का समय हो
फिर वह मुस्कुरा कर आगे
बढ़ जातें हैं !
 
इधर बहुत बाद के सालों
में तो और बुरा हुआ है
शहर में लोग सुध नहीं लेते
एक दूसरे की !

बहुत समय हुआ लोग
हाल नहीं पूछते
सब जैसे अपने आप में मगन हैं
जब मौसम का ज़िक्र आता तो
लोग यही कहते

इस साल बहुत गर्मी पड़ी
या इस बार बहुत ठंड पड़ी
लोगों ने ये भी पूछा कि
तुमने देखी थी कभी ऐसी बारिश ।

लेकिन
बहुत पहले के गये बीते दिनों में से ही
बहुत सारे दिन ऐसे थें
जब आँगन बुहारती माँ ने
अक्सर नियम से टोका ये कहकर
कि नहीं अभी बहुत धूप है ।
मत जाओ ।
लू लग जायेगी ।बीमार पड़ जाओगे !

कोठे से कपड़े उतारती ,माँ आँखें दिखाते
हुए ये कहती बाहर बारिश में क्यों भींगनें जा रहे हो
बुखार हो जायेगा ।!
चलो भीतर चलो
घर से बाहर बारिश ख़त्म होने पर ही जाना

अचानक एक दिन घुलते
हुए दिनों में माँ कहीं बिला गई

अब बहुत धूप वाले गर्मियों के
दिनों में जब बाहर निकलता तो कोई
रोकने - टोकने वाला कोई नहीं था
लेकिन ; इस आज़ादी पर दिल में कोई
ख़ुशी नहीं होती थी !
घर की दहलीज़ से पैर निकालते समय
मैं उस आवाज़ को सुनना चाहता था !
कि रूको बाहर अभी बहुत धूप है , मत
जाओ

क्या इतना ज़रूरी काम है
कल चले जाना ।
रूको दो मिनट तुम्हें बहुत जल्दी
रहती है
मैं , छाता लेकर आती हूँ !

वापस , लौटता तो माँ हाथों में
गुड़ का शरबत लिये खड़ी रहती

अब उसी तरह तपती हुई दोपहर
में जब घर से निकलता हूँ
तो सोचता हूँ कि कोई पीछे से
आवाज दे
और रोक ले मुझे ये कहकर कि नहीं
अभी बहुत धूप है
 बाहर मत जाओ ।
रूको कि तुम्हें बहुत जल्दी
रहती है
साथ में छाता लेकर जाओ

पसीने से लथपथ काम को निपटाकर
जब मैं चिलचिलाती हुई धूप से
होकर लौटता हूँ

तो ओसारा बिल्कुल
खाली दिखाई देता है ।
मैं गुड़ वाले शरबत
लिये हाथों के बारे में सोचता हूँ
 लेकिन , अब वहाँ कोई नहीं है !
जैसे ही इस बात को सोचता हूँ
दिमाग फटने लगता है ।
इस कविता को लिखते हुए हाथ
काँपने लगें हैं !

 बाद के दिनों में जब पिता घर की जर्जर
छत की तरह हो चले थें
सर्दियों के दिनों में
जब मैं सुबह सुबह काम
पर निकलता तो पिता तकीद करते
बाहर बहुत ठंड है
तुम रात को शायद देर से लौटते हो

या कि , तुम्हारी सेहत बहुत गिरती जा रही
है
सब कुछ धरा का धरा रह जायेगा
तुम खाने - पीने में बहुत लापरवाह हो
अपनी सेहत पर बहुत ध्यान नहीं देते
थोड़ा दूध रात को लिया करो
च्यवनप्राश और दूध एक साथ लेने से
सर्दियों में सेहत ठीक रहती है
मेरे बाद तुम्हें और तुम्हारे बाल बच्चों
 को अब तुम्हें ही देखना है
तुम समझ रहे हो ना मैं
जो कह रहा हूँ ।

पिता शायद साफ़ - साफ़ अलविदा नहीं
कहना चाहते थें
अंतिम दिनों में पिता इसी तरह घूमा - फिरा कर
बातें करते थें
जैसे एक कुशल नाविक सौंप रहा हो
कोई कमान अपने अधीनस्थ को !

अब कोई हाल चाल नहीं लेता
कोई नहीं रोकता -टोकता
कोई नहीं डाँटता
डपटता