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इतने थोड़े जल में / अमरनाथ श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते
ठेस कहीं लगने का
भय कितना सहते
इतने थोड़े जल में
ऐसी रंगरलियाँ
हम न हुए शीशे के —
ज़ार की मछलियाँ
सबकी अपनी बोली
किससे क्या कहते
कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते
लोगों को मिलती है —
नीन्द बिना माँगे
लेकिन आदत अपनी
जाए तो जागे
वरना हम भी
सीधी धारा में बहते
कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते
कभी तो मिले होते
वृक्ष हम अभागे
सांसों की धूल बची
आँधी के आगे
ढहते भी तो —
केवल एक बार ढहते
कैसे हम काँच के
घरौन्दों में रहते