भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इधर जुगाड़ो उधर जुगाड़ो सरल नहीं है ये दाल-रोटी / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
Kavita Kosh से
इधर जुगाड़ो उधर जुगाड़ो सरल नहीं है ये दाल-रोटी,
लगा के मिस्रे परोस दो झट ग़ज़ल नहीं है ये दाल-रोटी।
लहू की बूँदें मिली हुई हैं मिला है इसमें पसीना अपना,
किसी ख़ुदा की इनायतों का सुफल नहीं है ये दाल-रोटी।
है गीता मेरी कुरान मेरा है भूख मेरी जुनून मेरा,
तेरे हरम की नज़ाकतों की नकल नहीं है ये दाल रोटी।
मचलती मौजों के बीच लड़ती सफ़ीनों का है अज़ाब ये तो,
ख़मोश झीलों में रश्क करता कवल नहीं है ये दाल रोटी।
कदम-कदम पर पहाड़ जैसी मुसीबतों का अज़ाब ये तो,
कोई शिगूफ़ा, या मसख़रों का चुहल नहीं है ये दाल- रोटी।