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इधर - उधर / अशोक तिवारी

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इधर - उधर

उधर न देखें श्रीमन्
सही तस्वीर उधर नहीं, इधर है
इधर ही है वो सब कुछ
वांछित है जो आपको
लहलहाते खेत
बाग़-बगीचे
वादियां-घाटियां
सड़कें - चिकनी और सरपट दौड़ती हुई
चमचमाता हुआ बाज़ार
इमारतें आलीशान

यहीं हैं
संस्कृति के सब नियंता भी

न देखें उधर श्रीमन
उधर हैं छोटे और नीच लोग
जो पले हैं
उधर की असभ्य, आदिम सभ्यता में
और रच रहे हैं बदनाम करने की साजिश
इधर की हमारी सभ्य और सुसंस्कृत पीढ़ी को लगातार
इसलिए कहता हूं श्रीमन्
उधर न देखें
वहां नज़र आने वाले
भूखे नंगे
मरियल ग़ुस्साए लोगों की फ़ौज
तैयार है हमें लूटने के लिए हरदम
आंखें चौड़ी किए - मुंह फैलाए
लपलपाती जीभ से
एक ही झटके में सटक जाने को तैयार

नज़र न डालें श्रीमन्
उन जाहिलों पर आप
उधर सिरफिरों और
फटेहाल लोगों की दास्तान के सिवा कुछ नहीं
जो कमाते है सुबह मुंह अँधेरे से
सूरज डूबने तक
हमारे ही दम पर
मगर उड़ा देते है जो
शराब और कबाब में

भीड़भरी उन गंदी बस्तियों पर
दृष्टि न डालें श्रीमन्
जो बीमारियों की जड़ हैं
पाप की खान हैं
जहां घर ताउम्र
सीलनभरी कोठरी का एक सपनाभर होता है

यही हैं श्रीमन्
जो हिमाकत करते हैं
सीना चौड़ाकर बोलने की
हमारी ओर उँगली उठाकर
और कहते है हम हैं ज़िम्मेदार
उनकी भूख, ग़रीबी, लाचारी और
कुपोषण के
जिनके काम की तलाश शुरू होती है
हर सुबह
और ख़त्म होती है
एक दिन आत्महत्या पर
जिसका ज़िम्मेदार भी ठहराते वो हमें ही
लिहाजा श्रीमन्
उधर न देखें
इधर ही देखें
अरे अरे! देखकर...
इधर के चिकने फ़र्श पर आप कहीं
फिसल न जाएं!!

14/01/2012