भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इनरहि इनरहि भै गेलै सोर हे / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

इस गीत में विभिन्न जातियों के भिन्न-भिन्न प्रवर और गाँठ के जनेऊ पहनने का उल्लेख है।

यह लौकिक परंपरा में ही संभव है। ऐसी परंपरा है कि गोत्र के प्रमुख लोगों को ध्यान में रखकर जनेऊ में प्रवर और गाँठ देने का विधानन है। जनेऊ के बाद ही लड़का अपने को श्रेष्ठ जनों की पंक्ति में बैठने का अधिकारी समझता है।

इनरहिं इनरहिं भै गेलै सोर हे।
एक गुन, दुइ गुन, तीन गुन हे।
तीन गुन, जनेउआ हे बाबा, बराम्हन क देलऽ हे॥1॥
तीन गुन, चारि गुन, पाँच गुन हे।
पाँच गुन जनेउआ हे बाबा, छतरी क देलऽ हे॥2॥
पाँच गुन, छव गुन, सात गुन हे।
सात गुन जनेउआ हे बाबा, भाटन क देलऽ हे॥3॥
सात गुन, आठ गुन, नव गुन हे।
नव गुन जनेउआ हे बाबा, हमरा क देलऽ हे॥4॥
एते<ref>इतना</ref> दिन रहियो हे बाबा, ओछियो<ref>नीच; छोटी; ओछी</ref> जात हे।
बैठिो न पैलिओ<ref>पाया</ref> हे बाबा, भैया केरऽ पाँत हे॥5॥
अबे हमरा करऽ हो बाबा, उतीम<ref>उत्तम, संस्कारनिष्ठ</ref> जात हे।
जाँघ जोरी बैठबऽ हे बाबा, भैया केरऽ पाँत हे॥6॥

शब्दार्थ
<references/>