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इन्क़्लाब-2 / अनिल पुष्कर
Kavita Kosh से
डम-डम-डम डमरू बजा
ख़ानाबदोश सब जमा हुए
छोटे-छोटे समूह बने, कबीले बने,
गाँव बने, क़स्बे बने और
शहर के रास्ते खुले
देखो, देखो जमा हुए हैं सारे प्राणी
जीव-जन्तु ले घोड़े हाथी,
नई-नई तब बातें निकलीं
लिपियाँ जन्मी, कलाएँ हुई
एक सभ्यता शुरू हुई
हुआ यूँ कि क्रान्ति हुई
इन्क़लाब आया
फिर आग जली और लोहा निकला
इस्तेमाल हुआ
पहिया बना
फिर आया
इन्क़लाब !
और ख़रीद-फ़रोख़्त शुरू हुई
देखो देखो
हुआ मुनाफ़ा, हुआ फ़ायदा
और, और फिर
देखो !! इन्क़लाब आया.
मानव युग का आरम्भ हुआ
ऐसे बार-बार क्या
इन्क़लाब आता है साथी ।