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इन्तज़ार: सात मूड / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
(एक)
आकाश से टूटा
शून्य में लटका इक तारा
अब गिरा
अब गिरा
(दो)
घूमता हुआ श्वान
खोजता शिकार
जुटा रहा है कई विधान
(तीन)
तूफान के वेग से
अधटूटी डाल में लटका इक फूल
अब गिरा
अब गिरा
(चार)
घाटियों से गूंजकर उठती हुई आवाज़
कानों से टकरा रही निरंतर
बस टकरा रही है
अबूझ, अनअनुभूत।
(पांच)
चमड़ी के नीचे हल्का-सा शोर
दुःखी हैं आंखों के चारों कोर
दो न आने की तपिश से
और दो आने की अतिशय ठण्डक से
(छह)
दीपक की कांपती लौ
हर क्षण बुझ जाने का भय।
(सात)
कोल्हू का बैल
घूमता रहा सुबह से शाम
वहीं का वहीं।
1970