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इन्तेज़ार का दुःख / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
मेरे जिस्म की
चार दीवारी में
उसके लम्स का सब्ज़ा
सूरज की तमाज़त से
कुम्भला कर
रफ्ता रफ़्ता
मुझसे जुदा हो रहा है
और उधर वह
जिसके लबों पर
बरसों पहले
आई मुस्कराहट
की पपडियाँ
जम चुकी थीं
अपनी आँखें
मेरी राहों पर रखकर
इंतेज़ार में थी
की अचानक
मुझसे पहले
मेरी ख़बर पहुँची
मेरे गाँव
आँखें राहों पर
धरी की धरी रह गईं
दरकी-सी मुस्कुराहटें
रखी की रखी रह गईं
कुछ ऐसे
इन ज़ालिम हवाओं
का रुख़ हुआ
वो जो मेरे
इंतेज़ार में भी ना थे
उन्हें भी
मेरे ना आने का
बहुत दुःख हुआ॥