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इन्द्र / श्रीविलास सिंह

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इन्द्र
क्यों हो तुम इतने पुंसत्वहीन।
क्यों नहीं आया
कभी मन में तुम्हारे कि
तुम भी करो उद्योग बढ़ाने को
अपना बल, पौरुष,
शक्ति और कौशल।
क्यों नहीं की तपस्या कभी तुमने
क्यों होते रहे तुम सदैव शंकाग्रस्त
दूसरों के तप से।
क्यों नहीं आई लज्जा तुम्हें
माँगते कवच-कुंडल
पुत्र सरीखे कर्ण से।
और तो और
नहीं झिझके तुम फैलाने में हाथ
अपने चिर शत्रु विरोचन के सामने भी।
बूढे दधिची से मांग ली
तुमने हड्डियाँ तक।
क्यों नहीं लगाई
प्राणों की बाज़ी कभी तुमने।
क्यों नहीं समझा
कभी श्रेयस्कर
मिट जाना संघर्ष करते
यहाँ-वहाँ घिघियाने के बजाय।
संभवतः दोष तुम्हारा नहीं
मित्र
यह प्रभाव है
उस सिंहासन का ही
जिस पर बैठते ही
विगलित हो जाता है सारा उद्दात्त।
जिससे नहीं बच पाये नहुष भी।
या शायद उद्यम और उत्सर्ग
नहीं बने देवताओं के लिए।
धन्यवाद प्रभु
तुमने हमें देवता नहीं बनाया
तुम्हारा उपकार
तुमने हमें रहने दिया
मनुष्य ही।