इन दिनों पिता की याद / प्रभात मिलिन्द
पिता जब थे
तब कितनी छोटी थी हमारी दुनिया
पिता की बड़ी दुनिया के बीचोबीच
इस तरह महफूज़
घने जंगल में जैसे गुनगुनी धूप का टुकड़ा
फिर एक दिन देखते ही देखते
धूप को खा गया जंगल ।
पिता थे
तो जर्जर समय भी निरापद लगता था
कुछ भी नहीं था इस धरती पर कल्पनातीत
फिर एक दिन अचानक
सबकुछ हो गया समय-सापेक्ष
और जीवन संशय पर पाँव धर चलने लगा ।
पिता के अन्तस में
एक नदी प्रवाहित होती थी
जिजीविषा और अदम्य विश्वास से भरी हुई…
आप्लावित होते रहते थे उस नदी में
हमारे छोटे-बड़े सपने ।
इतने विरल होते हैं
दो व्यक्तियों के अन्तर्सम्बन्ध,
यह तब जाना मैंने
पिता के भीतर बहती वह नदी
जब सूख गई माँ के मन में
एक रोज़ अचानक ही ।
माँ के मन से गुज़रती हुई
बरामदे में पड़ी ख़ाली कुर्सी तक
फैलती है सालों-साल लम्बी रेत की एक नदी
इस अगम नदी को माँ
तुलसी और कबीर के सहारे
पार करना चाहती है
जिनके दोहे और पद पढ़ाए थे पिता ने
मृत्यु के एक दिन पहले तक ।
पिता के पास ढेर सारी किताबें थीं
उन किताबों में ढेर सारे क़िस्से थे
उन क़िस्सों में कुछ फन्तासियाँ थीं
और ढेर सारी पहेलियाँ ।
अफ़सोस लेकिन,
पन्ने कुछ ग़ायब थे आख़िर के
दर्ज़ थे जिन पन्नों पर उन पहेलियों के हल…
उन खोए हुए पन्नों की तलाश में
भटकता फिरता हूँ दोस्त !
क्षमा करना,
इसलिए फ़ुर्सत नहीं मिलती इनदिनों ।