इन दिनों / आलोक कुमार मिश्रा
कविता लिखना
लगता है अश्लील आजकल
और किताबें पढ़ना
कोई बेहद उबाऊ गैर जरूरी काम
आसमान से उतर कर पैरों पर
आ गिरती है
रात अक्सर ही घप्प से
करवटों में ढली रहती है
नींद इन दिनों
पानी का गिलास उठाता हूँ
तो गंगा के विलाप का स्वर गूँज उठता है
उसमें तैरती लाशें बोलने लगती हैं कोरस में
व्यवस्था की काहिली का आख़्यान
टीवी खोलता हूँ तो
हो जाता हूँ जल्दी ही बंद करने पर मजबूर
क्योंकि घर के सारे ऑक्सीजन को
उसमें पसरे जीवन का संघर्ष
अपनी ओर खींचने लगता है
और मैं खुद को उखड़ता महसूस करने लगता हूँ
आकर बैठ जाता हूँ फिर
घर की खिड़की पर
दिखता है सामने के उदास स्कूल की दीवार पर टंगा पोस्टर
पोस्टर पर राजा का हंसता-मुस्कुराता चेहरा
उबकाई आते-आते रह जाती है
फिर देख लेता हूँ उसके मुँह पर पड़े कबूतरों की बीट
बस यही एक बात
मुझे कुछ सुकून देती है इन दिनों।