इबादत के पन्ने लफ़्ज़ों के मोहताज नहीं होते / वंदना गुप्ता
सुनो
तुम लिख रही हो ना ख़त
मेरे नाम जानता हूँ
देखो न स्याही की कुछ बूँदें
मेरे पन्नों पर छलछला आयी हैं
सुनो
देखो मत लिखना विरहावली
वो तो बिना कहे ही
मैंने भी है पढ़ी
और देखो
मत लिखना प्रेमनामा
उसके हर लफ्ज़ की रूह में
मेरी साँसें ही तो साँस ले रही हैं
फिर किसके लिए लिखोगी
और क्या लिखोगी
बताओ तो सही
क्यूँ लफ़्ज़ों को बर्बाद करती हो
क्यूँ उनमे कभी दर्द की
तो कभी उमंगों की टीसें भरती हो
मोहब्बत के सफरनामे पर
हस्ताक्षरों की जरूरत नहीं होती
ये दस्तावेज तो बिना जिल्दों के भी
अभिलेखागार में सुरक्षित रहते हैं
और शब्दों की बयानी की मोहताज़
कब हुई है मोहब्बत
ये तो तुम जानती ही हो
फिर क्यूँ हवाओं के पन्नों पर
संदेशे लिखती हो
न न नहीं लिखना है हमें
नहीं है अब हमारे पहलू में जगह
किसी भी वादी में बरसते सावन की
या बर्फ की सफ़ेद चादर में ढके
हमारे अल्फाज़ नहीं है मोहताज़
पायल की झंकारों के
किसी गीत या ग़ज़ल की अदायगी के
बिन बादल होती बरसात में भीगना
बिन हवा के सांसों में घुलना
बिन नीर के प्यास का बुझना
और अलाव पर नंगे पैर चलकर भी
घनी छाँव सा सुख महसूसना
बताओ तो ज़रा
जो मोहब्बत की इन राहों के मुसाफिर हों
उन्हें कब जरूरत होती है
संदेशों के आवागमन की
कब जरूरत होती है
उन्हें पन्नों पर उकेरने की
क्यूँकि वो जानते हैं
इबादत के पन्ने लफ़्ज़ों के मोहताज नहीं होते