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इरोम शर्मिला / फ़रीद खान

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यह कविता इरोम पर नहीं है.
उन लोगों पर है
जो गाँवों, क़स्बों, गलियों, मुहल्लों में
लोकप्रियता और ख़बरों से दूर,
गाँधी की लाठी लिए चुपचाप कर रहे हैं संघर्ष ।

यह कविता इरोम पर नहीं है ।
यह धमकी है उस लोकतंत्र को,
जो फ़ौजी बूट पहने खड़ा है ।
जो बन्दूक की नोक पर इलाक़े में बना कर रखता है शांति ।

पिछले दस सालों में जितने बच्चे पैदा हुए हिमालय की गोद में,
उन्होंने सिर्फ़ बन्दूक़ की गोली से निकली बारूद की गँध ही जाना है,
और दर्शनीय-स्थलों की जगह देखी हैं फ़ौज ।
जहाँ बर्फ़-सा ठंड़ा है कारतूस का भाव ।

यह कविता इरोम पर नहीं है,
बल्कि उस बारूद की व्याख्या है,
जिसकी ढेर पर बैठा है पूर्वोत्तर ।