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इलाही किस क़ियामत के मिरे नाले रसा निकले / मेला राम 'वफ़ा'
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इलाही किस क़ियामत के मिरे नाले रसा निकले
तहे-तहतुस्सरा पहुंचे सरे-फ़ौक़स्समा निकले
बवक़्ते-गिरया पासे-इजतिराबे-क़ल्ब लाज़िम है
जो आंसू आंख से निकले तड़पता लौटता निकले
कभी पर्दे में रह सकती नहीं शुहरत हसीनों की
जो पर्दे में रहा करते थे आलम-आश्ना निकले
बना कर इक ठिकाना रह सके कब तेरे दीवाने
कभज बस्ती में आ धमके, कभी सहारा में जा निकले
ख़ुशी की इंतिहा से है मुझे उल्टी परेशानी
ख़ुशी की इंतिहा डर है न ग़म की इब्तिदा निकले
महब्बत की है शायद ऐ 'वफ़ा' इक ये भी मजबूरी
भरे हों दिल में तो शिकवे मगर मुंह से दुआ निकले।