भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इश्क़ नहीं मेरा धन तक / सादिक़ रिज़वी
Kavita Kosh से
इश्क़ नहीं मेरा धन तक
उन पे वारी तन मन तक
जो दहलीज़ न लांघ सके
आएगा क्या आँगन तक
खैर मनाएं इज़्ज़त की
हाथ है पहुंचा कंगन तक
ब्याह दी बेटी दे के दहेज़
क़र्ज़ में डूबी गर्दन तक
आती है जब उनकी याद
रुक जाती है धड़कन तक
हम पे करे वह हद जारी
पाक है जिसका दामन तक
जान दी लेकिन आन न दी
रुसवा हो गया रहजन तक
देख के हैबत चेहरे पर
हंसने लगा है दरपन तक
'सादिक़' तन्हाई का ज़ह्र
फ़ैल गया है तन मन तक