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इश्क़ में आती है मंज़िल एक और / रतन पंडोरवी

इश्क़ में आती है मंज़िल एक और
मांगता हज हुस्न जब दिल एक और

ये भी क्या उल्फ़त भी हो नफ़रत भी हो
क्या हमारे दिल में है दिल एक और

या तो रंजो-ग़म की ये कसरत न हो
या हो सहने के लिए दिल एक और

इश्क़ में मरना भी क्या दिलचस्प है
ज़िन्दगी होती है हासिल एक और

उन को रुसवाई का गुज़रा है गुमां
हां! मगर इस में है मुश्किल एक और

एक सागर से मुझे होता है क्या
और ला! ऐ जाने-महफ़िल एक और

जब क़ज़ा आई तो वो भी आ गये
देखिये हासिल में हासिल एक और

मौत से क्या ख़ाक तस्कीं हो मुझे
इस के आगे भी है मंज़िल एक और।