इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद<ref> आलोचना</ref>, दिल में है इक शख़्स समाया जाता
शब को ज़ाहिद से न मुठभेड़ हुई ख़ूब हुआ
नश्अ ज़ोरों पे था शायद न छुपाया जाता
लोग क्यों शेख़ को कहते हैं कि अय्यार है वो
उसकी सूरत से तो ऐसा नहीं पाया जाता
अब तो तफ़क़ीर<ref>कुफ़्र का फ़तवा देने की आदत से , जाति बहिष्कृत करने की मनोवृत्ति से</ref>, से वाइज़<ref>उपदेशक</ref>, ! नहीं हटता ‘हाली’
कहते पहले तो दे-ले के हटाया जाता
शब्दार्थ
<references/>