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इश्‍क़ की जो लगन नहीं देखा / 'सिराज' औरंगाबादी

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इश्‍क़ की जो लगन नहीं देखा
वो बिरह की अगन नहीं देखा

क़द्र मुज अश्‍क की वो क्या जाने
जिस ने दुर्द-ए-अदन नहीं देखा

तुज गली में जो कुई किया मसकन
फिर कर उस ने वतन नहीं देखा

आरज़ू है कि ज़ुल्फ़ कूँ खोले
मैं ने काली रयन नहीं देखा

लब-ए-रंगीं दिखा ऐ मादन-ए-हुस्न
मैं अक़ीक़-ए-यमन नहीं देखा

टुक ज़मीं पर क़दम रखो साजन
आज नक्‍श-ए-चरन नहीं देखा

दिल अबस तिश्‍ना-लब है कौसर का
पियू का चाह-ए-ज़क़न नहीं देखा

तुज मसल ऐ ‘सिराज’ बाद-ए-वली
कोई साहब सुख़न नहीं देखा