इसकी हर आन-बान क्यों न रहे
आदमीयत की शान क्यों न रहे
याद आती रहे बुजुर्गों की
खानदानी मकान क्यों न रहे
जो विरासत में है मिला तुझको
तेरा वो खानपान क्यों न रहे
फीका पकवान क्यों हो इसका कभी
ऊंची मन की दुकान क्यों न रहे
बेवज़ह इसके पंख काट नहीं
दोस्ती की उड़ान क्यों न रहे
जब भी बोलेगी झूठ बोलेगी
कुछ घड़ी चुप ज़बान क्यों न रहे