भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इसलिए जफ़ओं पर मुझ को मुस्कुराना था / 'नसीम' शाहजहांपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसलिए जफ़ओं पर मुझ को मुस्कुराना था
और उस सितम-गर का हौसला बढ़ाना था

आँसूओं की क़ीमत जब मोतियों से बढ़ कर थी
वो मेरी मोहब्बत का और ही ज़माना था

जब सितम से डरते थे अब करम से डरते हैं
ये भी इक ज़माना है वो भी इक ज़माना था

जिंदगी ने लूटा है जिंदगी को दानिस्ता
मौत से शिकायत क्या मौत का बहाना था

वो भी दौर गुज़रा है जब मेरी वफ़ाओं से
आप ही नहीं तन्हा बद-गुमाँ ज़माना था

ऐ ‘नसीम’ गुलशन में जब बहार के दिन थे
दोश पर फ़ज़ाओं के मेरा आशियाना था