भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस असंग सुनसान में / प्रभात त्रिपाठी
Kavita Kosh से
शब्द सोचता है
काश ! वह चित्र होता
और चित्र ?
वह क्या सोचता है ?
सबको देख रहा है
सुन रहा है सबके शब्द
द्रश्य की तमाम हरी पीली वस्तुएँ
ओर सात सुरों का खेल है
यह चित्र
उसे पेड़ नहीं होना था
और इसे नदी
ज़मीन पर वह नहीं रहता
आसमान पर यह
पर सम्भव है सब कुछ
चित्र में
जैसे शब्द में
चित्र के सोचने में से आ रही थी वह आवाज़
आकाश के स्याह से झमाझम सफ़ेद को
धार करती वसुन्धरा की कोख
फिर हरी हो रही थी
उस पुनर्नवा की आँखों में विषाद था
और पलक झपकते वहीं से खिलखिलाती थी मस्ती
अब इस चित्र का रंग
इस असंग़ सुनसान में
बोझिल उमस से भरी
अधरात का समय है बेनींद ।