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इस उमर में भी मैं आँखें चार करता हूँ / अवधेश्वर प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
इस उमर में भी मैं आँखें चार करता हूँ।
उस तरफ जाकर मैं उनसे प्यार करता हूँ।।
आँख जब मिलती तो बिजली खुद छिटक जाती।
रात होते उनसे मैं इजहार करता हूँ।।
हाँ न करते-करते देखो भोर हो जाती।
फिर सुबह से शाम तलक इंतजार करता हूँ।।
शाम को गलियों में चक्कर काटते रहते।
जी हुजूरी उनकी मैं सौ बार करता हूँ।।
ज़िंदगी जीना है तो दिलदार हो जाओ।
आपसी सौहार्द से भिनसार करता हूँ।।