भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था / फ़ज़ल ताबिश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था
गुम-सुम रौशन-दानो बोलो क्या तुम ने कुछ देखा था

अँधे घर में हर जानिब से बद-रूहों की यूरिश थी
बिजली जलने से पहले तक वो सब थीं मैं तनहा था

मुझ से चौथी बेंच के ऊपर कल शब जो दो साए थे
जाने क्यूँ ऐसा लगता है इक तेरे साए सा था

सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है
पहले नीचा था तो ऊँचे मीनारों पर बैठा था

माज़ी की नीली छतरी पर यादों के अँगारे थे
ख़्वाहिश के पीले पत्तों पर गिरने का डर बैठा था

दिल ने घंटों की धड़कन लम्हों में पूरी कर डाली
वैसे अनजानी लड़की ने बस का टाइम पूछा था