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इस कलिकाल कराल में / दिनेश कुमार शुक्ल

इस कलिकाल कराल में
सोचिए
इस विचार-विरोधी समय में भी,
सोचिए कि
इतने मुक्त बाजार के बावजूद
अब भी सम्भावनाएँ बची हैं मुक्ति की

मृत्यु के इतने रसायनों के बावजूद
जीवित है जल हवा और कहीं-कहीं मनुष्य भी,
डोर कट जाने पर भी
शान से तैरती लहराती लय के साथ उतरती चली आती है
कटी पतंग

इतनी भ्रूणहत्याओं के बाद भी
जीवित हैं बच्चियाँ

इतने मुनाफे के बावजूद
कुत्सा समाप्त नहीं कर सकी सौन्दर्य को
इतने वर्षों से मॉडलिंग करते हुए भी
उसके भीतर जीवित है
एक बहन, एक बेटी, एक प्रेमिका...

इस कलिकाल कराल में भी सोचिए जरा सोचिए
कि सोचना सम्भव है...!