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इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ देखा न था / ओम प्रकाश नदीम
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इस क़दर अन्देशा-ए-वह्म-ओ-गुमाँ<ref>भ्रम</ref> देखा न था ।
आग के इज़हार से पहले धुआँ देखा न था ।
अपनी छत के दायरे में क़ैद थी उसकी उड़ान,
बे हिसार-ओ-सम्त<ref>असीमित</ref> उसने आसमाँ देखा न था ।
वो तअल्लुक़ तोड़ कर भी ख़ुश है मैं हैरान हूँ,
बेहिसी<ref>सम्वेदनहीनता</ref> को मैंने इतना शादमाँ<ref>ख़ुश</ref> देखा न था ।
अपनी बीनाई<ref>दृष्टि, नज़र</ref> पे भी अब हमको शक होने लगा,
झील के पानी को ऐसा बेकराँ<ref>बिना किनारे का</ref> देखा न था ।
हम समझते थे कि लाफ़ानी<ref>अविनाशी</ref> है सूरज का जलाल<ref>प्रताप</ref>,
धूप की अज़्मत<ref>प्रतिष्ठा</ref> को ज़ेर-ए-सायबाँ<ref>छत्र-छाया</ref> देखा न था ।
शब्दार्थ
<references/>