इस बस्ती का नाम मुआनजोदड़ो नहीं था / अशोक कुमार पाण्डेय
वहाँ अमराइयों की छाया में बैठी एक चिड़चिड़ी कुतिया थी
अमिया चूसती एक लड़की फ्राक के फटे झालर से नाक पोछती
उधड़ी बधिया वाली खटिया पर ऊँघता बूढ़ा न मालिक लगता था न रखवाला
कुंए में झाँकती औरत पता नहीं पानी के बारे में सोच रही थी या आत्महत्या के
अधेड़ डाकिया था खिचड़ी बालों और घिसी वर्दी से भी अधिक घिसी साइकल पर सवार
स्कूल के चबूतरे पर बैठी चिट्ठियाँ बांचती मास्टरनी लौटती बस के इंतज़ार में
चिट्ठियों में बम्बई-कलकत्ता-ग्वालियर-भोपाल की बजबजाती गलियों की दुर्गन्ध भरी थी
मनीआर्डर के नोटों पर पसीने से अधिक टीबी के उगले खून की बास
बादलों से ख़ाली आसमान और चूल्हों से जूझती आग़
दोपहर का कोई वक़्त था जून का महीना प्यास से बेचैन गले और पानी मांगने की हिम्मत जुटाने में सूखते होठ
न नौकर था उस वक़्त मैं न मालिक न बाहरी न गाँव का
सवाल पूछते शर्म से थरथराती जबान दर्ज़ करती क़लम की तरह
कितनी ज़मीन थी क्या-क्या बोया उसमें काटा क्या-क्या क्या क़ीमत घर की कितने ज़ेवर जानवर कितने?
सवाल थे सरकार के और जवाब बिखरे हुए पूरे गाँव में सन्नाटे की तरह
उम्मीद मेरे आश्वासनों से निकल थककर बैठ जाती प्यास से बेहाल उनके बिवाइयों भरे पैरों के पास
शब्द वहाँ बौने हो जाते हैं जहाँ छायाएं पसरने लगती हैं मृत्यु की.
दीवारों पर चमत्कारी महात्माओं के पोस्टर थे जो वही सबसे चमकदार उस इंसानी बस्ती में
चमकते दांतों वाला एक विज्ञापन अश्लील उस मरती हुई सभ्यता के बीच
फीके पड़ चुके चुनावी पोस्टर उनमें लिखे सपनीले शब्दों जैसे ही
मुझे अचानक लगा कि कितने पोस्टर होने चाहिए थे यहाँ गुमशुदा लोगों के
जहाँ इबारतें लिखीं सरकारी योजनाओं की वहाँ लिखे होने चाहिए थे उन लड़कों के नाम
जो बारह साल बाद अब बूढ़े हो चुके होंगे दिल्ली की किसी गली में
उम्मीद का एक गीत, सपनों का एक पता तो होना ही था वहाँ
जहाँ कुछ नहीं बचा सूखी धरती, खाली चूल्हों, मुन्तजिर औरतों, उदास बच्चों
और मृत्यु से हारे बूढों के अलावा
एक पोस्टर तुम्हारा भी तो होना था यहाँ कामरेड!